Why Should You Read This Summary?
सुंदरता और जवानी के चंचल आराम के बाद कोकिला अब उस दुखी जीवन के निशान को आँसुओं से धो रही थी। बीते हुए जीवन की याद आते ही उसका दिल बेचैन हो जाता और वह उदासी और निराशा से परेशान होकर पुकार उठती- "हाय! मैंने दुनिया में जन्म ही क्यों लिया?"
उसने दान और व्रत से उन कालिख को धोने की कोशिश की और जीवन के बसंत की सारी पूंजी इस बेकार कोशिश में लुटा दी। पर यह समझ क्या किसी महात्मा का वरदान या किसी पूजा का फल था? नहीं, यह उस नवजात बच्चे को पहली बार देखने का फल था, जिसके जन्म ने आज पन्द्रह साल से उसकी सूनी गोद को भर दिया था। बच्चे का मुंह देखते ही उसके नीले होंठों पर एक कमजोर, दुखी, उदास मुस्कराहट झलक गई पर सिर्फ एक पल के लिए।
एक पल के बाद वह मुस्कराहट एक लम्बी साँस में गायब हो गयी। उस हल्के, कमजोर, कोमल रोने ने कोकिला के जीवन का रुख फेर दिया। ममता की वह रोशनी उसके लिए जीवन-सन्देश और मौन उपदेश थी।
कोकिला ने उस बच्ची का नाम रखा श्रृद्धा। उसी के जन्म से तो उसमें श्रृद्धा पैदा हुई थी। वह श्रृद्धा को अपनी लड़की नहीं, किसी देवी का अवतार समझती थी। उसकी सहेलियाँ उसे बधाई देने आतीं; पर कोकिला बच्ची को उनकी नजरों से छिपाती। उसे यह भी मंजूर न था कि उनकी पापी नजर भी उस पर पड़े।
श्रृद्धा ही अब उसकी पूंजी, उसकी आत्मा, उसके जीवन की रोशनी थी। वह कभी-कभी उसे गोद में लेकर इच्छाओं से छलकती हुई आँखों से देखती और सोचती क्या यह पवित्र ज्योति भी वासना के खतरनाक हमलों का शिकार होगी? मेरी कोशिश बेकार हो जाएगी ? आह! क्या कोई ऐसी दवा नहीं है, जो जन्म के संस्कारों को मिटा दे? भगवान से वह हमेशा प्रार्थना करती कि मेरी श्रृद्धा किन्हीं काँटों में न उलझे। वह बात और काम से, सोच और व्यवहार से उसके सामने औरत के जीवन का ऊँचा आदर्श रखेगी।
श्रृद्धा इतनी सरल, इतनी होशियार, इतनी बुद्धिमान थी कि कभी-कभी कोकिला ममता से गद्गद होकर उसके तलवों को अपने माथे से रगड़ती और पछतावे और खुशी के आँसू बहाती।
सोलह साल बीत गये। पहले की भोली-भाली श्रृद्धा अब एक शांत, शर्मीली लड़की थी, जिसे देखकर आँखें तृप्त हो जाती थीं। पढ़ाई में डूबी रहती थी, पर दुनिया से दूर। जिनके साथ वह पढ़ती थी वे उससे बात भी न करना चाहती थीं। ममता के वातावरण में पड़कर वह घोर घमंडी हो गई थी। ममता के वातावरण, सखी-सहेलियों के अलगाव, रात-दिन की घोर पढ़ाई और किताबों के साथ रहने से अगर श्रृद्धा को घमंड हो आया, तो आश्चर्य की कौन-सी बात है! उसे किसी से भी बोलने का हक न था।
स्कूल में भले घर की लड़कियाँ उसके साथ रहने में अपना अपमान समझती थीं। रास्ते में लोग उँगली उठाकर कहते "क़ोकिला वैश्या की लड़की है।" उसका सिर झुक जाता, गाल पल भर के लिए लाल होकर दूसरे ही पल फिर चूने की तरह सफेद हो जाते। श्रृद्धा को अकेलेपन से प्यार था। वो शादी को भगवान की सज़ा समझती थी। अगर कोकिला ने कभी उसकी बात चला दी, तो उसके माथे पर बल पड़ जाते, चमकते हुए लाल चेहरे पर कालिमा छा जाती, आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते; कोकिला चुप हो जाती। दोनों के जीवन-आदर्शों में विरोध था।
कोकिला समाज के देवता की पुजारिन थी और श्रृद्धा को समाज से, भगवान से और इंसान से नफरत थी । अगर दुनिया में उसे कोई चीज प्यारी थी, तो वह थी उसकी किताबें । श्रृद्धा उन्हीं विद्वानों के साथ में अपना जीवन बिताती , जहाँ ऊँच-नीच का भेद नहीं, जाति-पाति की जगह नहीं, सबका हक समान हैं। श्रृद्धा की पूरी प्रकृति का परिचय महाकवि रहीम के एक दोहे के पद से मिल जाता है।
"प्यार सहित मरिबो भलो, जो विष देय बुलाय।"
अगर कोई प्यार से बुलाकर उसे जहर दे देता, तो वह सिर झुकाकर उसे अपने माथे से लगा लेती लेकिन बेइज्जती से दिये हुए अमृत की उसकी नजरों में कोई इज्ज़त न थी।
एक दिन कोकिला ने आँखों में आँसूभर कर श्रृद्धा से कहा- "क्यों मन्नी, सच बताना, तुझे यह शर्म तो लगती ही होगी कि मैं क्यों इसकी बेटी हुई। अगर तू किसी ऊँचे कुल में पैदा हुई होती, तो क्या तब भी तेरे दिल में ऐसे ख्याल आते? तू मन-ही-मन मुझे जरूर कोसती होगी।"
श्रृद्धा माँ का मुँह देखने लगी। माँ से इतनी श्रृद्धा कभी उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी। वो काँपते हुए आवाज में बोली- "अम्माँजी, आप मुझसे ऐसे सवाल क्यों करती हैं? क्या मैंने कभी आपका अपमान किया है?"
कोकिला ने गदगद होकर कहा- "नहीं बेटी, उस परम दयालु भगवान् से यही प्रार्थना है कि तुम्हारी जैसी प्यार लड़की सबको दे। पर कभी-कभी यह ख्याल आता है कि तू जरूर ही मेरी बेटी होकर पछताती होगी।"
श्रृद्धा ने धीमे गले से कहा- "अम्माँ, आपकी यह भावना गलत है। मैं आपसे सच कहती हूँ, मुझे जितनी श्रृद्धा और भक्ति आपके लिए है, उतनी किसी के लिए नहीं। आपकी बेटी कहलाना मेरे लिए शर्म की नहीं, गर्व की बात है। इंसान हालातों का गुलाम होता है। आप जिस वातावरण में पलीं, उसका असर तो पड़ना ही था; लेकिन पाप के दलदल में फँसकर फिर निकल आना जरूर गौरव की बात है। बहाव की ओर से नाव खे ले जाना तो बहुत सरल है; लेकिन जो नाविक बहाव के उल्टी दिशा में नाव खे ले जाता है, वही सच्चा नाविक है।"
Puri Kahaani Sune..